न जाने कितनी बार मैंने सिंदूर पोछा, न जाने कितनी बार लगाया – मुझे याद नहीं

गोरखपुर। प्यार की ये अनोखी दास्तान है। एक दम अलग। मजहबी दीवारों को तोड़ती हुई। मोहब्बत की नई इमारत और इबारत खड़ी करती हुई। इस कहानी में भी एक नायक है एक नायिका। दोनों के धर्म अलग-अलग हैं। लेकिन दिल की धड़कनें एक। दोनों के परिवार अलग हैं लेकिन प्यार की परिभाषाएं एक। दोनों का प्यार परवान चढ़ा। दोनों अपने पैरों पर खड़े हुए। और शादी की। दोनों में से किसी ने अपना धर्म नहीं बदला। बल्कि एक-दूसरे का सम्मान सिर आंखों पर रखा। गोरखपुर के डॉक्टर दंपत्ति वजाहत करीम और सुरहिता की प्रेम कहानी सहिष्णुता और असहिष्णुता जैसे माहौल के बीच एक नजीर है। अपनी प्रेम कहानी और उसकी हैप्पी एंडिंग की कहानी खुद इन्हीं डॉक्टर दंपत्ति की जुबानी-
वो दौर इस दौर से ज्यादा अच्छा था
वजाहत और मैं (सुरहिता) एक साथ मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे। वजाहत मुसलमान हैं और मैं बंगाली हिंदू। उस वक़्त हम ही नहीं कई और लड़के-लड़कियां भी थे जो एक ही धर्म के नहीं थे पर कॉलेज में उनका अफ़ेयर चल रहा था। हमारा अफ़ेयर छह साल चला। हमारे टीचर्स को भी पता था और किसी को कोई परेशानी नहीं थी। मैं तो कहूंगी वो दौर, इस दौर से ज़्यादा अच्छा था।
पहले कुछ बन के दिखाओ, फिर शादी के बारे में सोचेंगे
मेरे पिता सरकारी नौकरी में थे। जब उन्हें बताया तो बोले कि पहले कुछ मुकाम हासिल कर लो, फिर शादी का सोचना। पर कभी दबाव नहीं डाला कि हम रिश्ता तोड़ दें या मिलें नहीं। ये अहसास ही नहीं होने दिया कि हम अलग धर्म से हैं तो इससे कोई फ़र्क पड़ता है। सुरहिता और वजाहत करीम, दोनों गोरखपुर में डॉक्टर हैं।
ससुर ने पूछा क्या भगवान में यकीन रखती हो
ये 1980 का दशक था, उस समय मीडिया में ये बातें इतनी नहीं आती थीं। जबकि हम गोरखपुर में थे जहां मंदिर का बहुत ज़ोर था। 1984 में शादी के वक़्त भी मंदिर की तरफ़ से एक चिट्ठी आई थी हमें, पर मेरे पिता जी ने सारी स्थिति को, हमारे रिश्ते को सहजता से मान लिया तो कोई दिक़्क़त नहीं हुई। हम डॉक्टर बन गए थे और अपने कॅरियर में अच्छा कर रहे थे। मेरे पिता के लिए यही सबसे ज़रूरी था। बल्कि उन्होंने एक रिसेप्शन दी जिसमें बंगाली रीति-रिवाज़ से सब किया गया और हमारे सारे जानने वाले आए। वजाहत का परिवार भी हमारे साथ आ गया। शादी से पहले मेरे होने वाले ससुर ने मुझसे बस इतना पूछा, क्या तुम भगवान में यक़ीन करती हो? मैंने कहा, हां। उन्होंने पूछा, क्या तुम मानती हो कि सबका भगवान एक है? मैंने कहा, हां। बस उन्होंने कुछ और नहीं पूछा। उन्होंने मुझसे ये सब नहीं पूछा कि तुम सिंदूर लगाओगी क्या या बिछिया पहनोगी या रमज़ान में रोज़े रखोगी, नमाज़ पढ़ोगी?
लड़की को मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं होना चाहिए
उन्होंने देवबंद में मालूम किया था कि ऐसे मामले में क्या ज़रूरी है, तो उन्हें बताया गया कि बस लड़की को मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं होना चाहिए, जो मुझे नहीं है। बस दुर्गा पूजा करते हैं जो मेरे लिए धार्मिक से ज़्यादा सांस्कृतिक रिवाज़ है। वजाहत और सुरहिता के दो बेटे हैं। शादी चाहे अपने समुदाय और धर्म में हो या किसी और में, उसकी शुरुआत एकदम खुले दिमाग़ से करने की ज़रूरत होती है। ख़ासतौर से इस्लाम में, क्योंकि हमारा मुसलमान परिवारों से इतना मेलजोल नहीं है इसलिए हम बहुत कुछ जानते नहीं हैं।
सास आती तो सिंदूर मिटा लेती, चली जाती तो लगा लेती
बंगालियों में सिंदूर लगाना और सफेद कड़ा पहनना बहुत अहमियत रखता है, पर हमारी सास के यहां बिजनौर में सिंदूर लगाना एकदम मना था। तो इसे लेकर थोड़ी अनबन होती थी। मैं चुपके से लगा लेती थी, फिर जब वो आती थीं, तो मिटा लेती थी। जब चली जाती थीं तो फिर लगा लेती थी। बच्चे भी समझ जाते हैं। जब हमारे मां-बाप के पास जाते थे तो नमस्ते कहकर पैर छू लेते थे और मेरे ससुराल से कोई आए तो सलाम-वालेकुम और वालेकुम सलाम कहते हैं। सुरहिता और वजाहत की शादी की 25वीं सालगिरह की तस्वीर।
मोदी सरकार के आने से पहले ही ‘लव जिहाद’ शब्द का इजाद हुआ
हमने कभी ये समझाया नहीं है, बचपन से ही वो समझ गए थे कि ये दो अलग धर्म हैं। ननिहाल में दुर्गा पूजा होती है और ददिहाल में ईद-बक़रीद। और अब तो मेरी मां भी हमारे साथ ही रहती हैं। मोदी सरकार के आने से पहले ही इस शब्द का इजाद हुआ ‘लव जिहाद’ और ज़्यादातर लोग शायद समझते भी हैं कि ये सिर्फ़ राजनीतिक बयानबाज़ी है। शादियां तो कई धर्म के लोग आपस में करते हैं, लेकिन सिर्फ़ शादी करने वाले मुसलमानों को ही निशाना बनाना सही नहीं है। पर मीडिया के इसे तवज्जो देने की वजह से इस बारे में लोगों में कौतूहल है। अब सोशल मीडिया में लोग लिखते हैं तो बहुत निजी कमेंट देने लगते हैं।
अच्छे लोगों की तादाद ज़्यादा है, पर वो बोलते नहीं
हो सकता है हमारे व़क्त में, 31 साल पहले, लोग इतने एक्सप्रेसिव नहीं थे। अपनी शंकाएं दिल में ही रखते होंगे। वजाहत कहते हैं कि दरअसल ये सब अच्छे लोगों की चुप्पी की वजह से फैल रहा है। अच्छे लोगों की तादाद ज़्यादा है, पर वो बोलते नहीं। वे कहते हैं कि बुरे लोग हैं कम पर ज़्यादा ज़ोर देकर बोलते हैं इसलिए अपना दबदबा बना लेते हैं। अच्छे लोग हिम्मत नहीं कर पाते वर्ना दुनिया में सबसे मज़बूत कोई चीज़ है तो वो प्यार है।
(बीबीसी से साभार)